प्रकृति के अनुकूल जीवन जीना चाहिए -पं0 भरत उपाध्याय

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परमपिता परमात्मा जिस प्रकार से प्रकृति सहित संसार के सभी जीवो को जो आकृति और जो रंग प्रदान करता है जो रंग भरता है वह किसी और से संभव नहीं है? इसलिए जिसने हमें जीवन प्रदान किया है जिसने हमें जीने के वेद शास्त्रों के अनुकूल जीने का मार्गदर्शन दिया है। उसी प्रकार से हमें जीना चाहिए और उसी प्रकार से जीवन के सभी कार्य करते हुए परमात्मा में स्थिर रहना चाहिए। प्रकृति हमें पल पल यह दिखाती है की प्रकृति और पुरुष, आपने बादलों की तरफ देखा होगा और पृथ्वी की तरफ देखा होगा तो लगता है आगे जाकर दोनों मिल रहे हैं।परंतु जब आगे जाकर देखोगे तो दोनों आमने-सामने रहकर भी कभी एक दूसरे से मिले ही नहीं। यह प्रकृति और ब्रह्म का आमने सामने रहना और अपने योग मार्ग के द्वारा पूरे सृष्टि का पालन करना यह उनका आत्मिक मिलन है। जिसके द्वारा वह जो रंग सृष्टि में भरते हैं वह किसी और से संभव नहीं है। इसी प्रकार से स्त्री पुरुष को दोनों को संग में रहते हुए भोग की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए, हमेशा योग में स्थिर रहना चाहिए।सिर्फ अपने जीवन में सृष्टि की उत्पत्ति के लिए ही भोग बताया गया है शास्त्रों के अनुसार भोग सिर्फ साल में एक बार करना चाहिए।परंतु आज का मनुष्य भोगी हो गया है जो निरंतर प्रकृति के गुणों के नियम का पालन ना करते हुए सिर्फ भोग ही चाहता है और भोग करते करते एक दिन मर जाता है लेकिन स्वयं का अनुभव नहीं कर पाता,और जो स्वयं का अनुभव नहीं कर पाया तो वह परमात्मा का क्या अनुभव करेगा इसलिए भोगी नहीं बने योगी बने प्रकृति और ब्रह्म से जाने कि परमात्मा और प्रकृति दोनों आमने-सामने रहकर भी योग मार्ग का पालन करते हैं। यदि जीवन में सुख प्राप्त करना है तो योगी बनें भोगी नहीं! यह जीवन का महान सूत्र है जो प्रकृति और ब्रह्म के द्वारा उनके चिंतन में प्राप्त होता है और प्रभु प्रसन्न होते हैं उस पूजा से जब कोई अपने इंद्रियों को मन को बस में कर करके अपनी आत्मा को ही प्रभु को समर्पित कर देता है चढ़ा देता है तो उसे अति प्रसन्न होते हैं । भगवान कभी उससे नहीं प्रसन्न होते कि अपनी इंद्रियों को अपने मन को तो आपने संसार में लगा रखा है लोगों में लगा रखा है और पूजा कर रहे परमात्मा की तो उससे ना कभी परमात्मा प्राप्त होता है और ना कभी उनसे मिलने वाला है ।

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