परमात्मा का प्राकट्य होता है, जन्म नहीं! -: पं० भरत उपाध्याय

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महापुरुष काल को सर्प और मगर की उपमा देते हैं। यह संसार एक ऐसा कुआँ है कि जिसमें कालरूपी सर्प हमेशा काटने के लिए तैयार ही रहता है। विषय-भोगों की इच्छा कामी स्त्री-पुरुषों को कुएँ में धकेलती है। काल का भय सतत उसके माथे खड़ा रहता है। दूसरी उपमा है मगर की। संसार सरोवर है। इस संसार- सरोवर में जीवात्मा स्त्री तथा बालकों के साथ क्रीड़ा करती है। संसार सरोवर में जो जीव रमता है, उसमें ही उसका काल भी बैठा हुआ है। जिस घर में मनुष्य काम-सुख भोगते हैं, उसमें ही उनका काल भी सूक्ष्म रीति से बैठा है। मनुष्य काल को देखता नहीं, परन्तु काल मनुष्य को सतत देखता है। मनुष्य गाफिल है, परन्तु काल सावधान है। संसार-रूपी सरोवर में जो काम-सुख भोगते हैं। उनको कालरूपी मगर पकड़ता है। जो काम की मार खाते हैं, उनको काल की मार खानी ही पड़ती है। मनुष्य ऐसा मानता है कि मैं काम को भोगता हूँ परन्तु यह मान्यता खोटी है। मनुष्य काम को भोगता नहीं, परन्तु काम मनुष्य को भोगकर उसको क्षीण-जीर्ण करता है- भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः। काम ऐसा दुष्ट है कि हृदय में जाने के पीछे निकलता नहीं। काम एक बार अन्दर प्रवेश कर जाये तो पीछे मानव का कोई उपाय चलता नहीं। काम दूर से देखता है कि जीव के हृदय में क्या है? इसके हृदय में राम हो तो काम आता नहीं। आ सकता भी नहीं। राम न हों तो काम आता है। साधारण ऐसा नियम है कि जहाँ काम की गति है; वहाँ काल की भी गति है। जहाँ काम जा सकता नहीं, वहाँ काल भी जा सकता नहीं। काम भयंकर है, प्रबल है। काम का नाश काम से ही करना पड़ता है। जो परमात्मा को काम अर्पण करता है, वह ही काम का नाश कर सकता है। काम एक काँटा है। जंगल में चलते हुए पैर में काँटा लग जाये तब सुई कहाँ मिलेगी? कोई दूसरा काँटा हाथ में लेकर उससे पैर का काँटा निकालना पड़ता है। पीछे दोनों को फेंक देते हैं। काँटे को काँटे से निकालना है। लोहे के खंड को लोहे के खंड से ठोकना पड़ता है। उसी रीति से काम को काम से ही मारना पड़ता है। लौकिक काम का नाश अलौकिक काम से करना है। जो भगवङ्काम हो, जिसे प्रभु-मिलन की तीव्र आतुरता जागे, उसका काम नाश को प्राप्त होता है।जो परमात्मा के अधीन रहता है, वह काल के अधीन होता नहीं। परमात्मा काल के भी काल हैं। तुमको आनन्द चाहिए तो तुम श्रीराम के साथ मित्रता करो, रामजी के साथ प्रेम करो। काम तुम्हारा मित्र नहीं, शत्रु है। काम अनेक जन्मों से जीव को रुलाता ही आया है। काम शत्रु होने पर भी मित्र-जैसा लगता है। काम दुःख ही बहुत देता है। अनादिकाल से यह जीव काम के अधीन होकर संसार में रगड़ा जाता है और काल की मार खाता है।जो काम की मार खाता नहीं, उसको काल भी मारता नहीं। काम की मार उस पर पड़ती है, जो रामजी से विमुख है। राम के सम्मुख रहे तो यह काम की मार खाये नहीं। दीपक के सम्मुख रहोगे तो छाया पीछे रहती है परन्तु दीपक के विमुख होगे तो छाया आगे आ जाती है। सूर्य के सम्मुख ह तब तक छाया आगे आती नहीं परन्तु जो जीव सूर्य से विमुख हो जाता है छाया उसके आगे आ जाती है। तुम जब प्रभु से विमुख होते हो तो काम तुम्हा आगे आकर खड़ा रहता है। यह संसार काममय है। इस संसार का मूल ही काम है। जहाँ देखो व अधिक भाग में काम का ही राज्य होता है। मनुष्य जब बहिर्मुख होता है उसे काम दिखाई देता है और काम का विष इसे जलाता है। संसार का नि जब जलाए, वासना-काम का विष जब जलाए, उस समय परमात्मा के कथामृन नामामृत का पान करना। तुम सर्वकाल में परमात्मा के सम्मुख रहने का अभ्य करो। सर्वकाल में भक्ति करने की आदत डालो। जहाँ सतत भक्ति होती वहीं रामजी प्रकट होते हैं। रामजी प्रकट होते हैं। रामजी का जन्म नहीं होता। अज-अविनाशी का जन्म कैसे? जन्म जिसका होता है उसका विनाश भी होता है। रामजी ऐसे हैं- अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।। मन गोतीत अमल अबिनासी। निरबिकार निरवधि सुखरासी॥ रामायण में स्पष्ट वर्णन आता है कि रामजी का जन्म हुआ नहीं, प्राकट्य हुआ है। रामजी क्या कौसल्या माँ के पेट से बाहर आये हैं? श्रीकृष्ण क्या देवकीजी के पेट से बाहर आए हैं? श्रीकृष्ण बाहर से ही प्रकट हुए हैं। श्रीराम बाहर से ही प्रकट हुए हैं और पीछे बालस्वरूप धारण किया है।
स्त्रीपुंमलाभियोगात्मा देहो विष्णोर्न जायते। किंतु निर्दोषचैतन्यसुखां नित्यां स्वकां तनुम्॥ प्रकाशयति सैवेयं जनिविष्णोर्न चापरा। भगवान् अवतार धारण करते हैं। तुम्हारा शरीर माता-पिता के शरीर से उत्पन्न हुआ है, उस रीति से भगवान् का शरीर माता-पिता के शरीर से होता नहीं। परमात्मा तो अपने निर्गुण, निराकार, चिदानन्दमय स्वरूप में से साकार स्वरूप को प्रकाशित करते हैं। श्रीरामजी का जन्म होता नहीं, श्रीरामजी का प्राकट्य होता है। भगवान् का अवतार होता है, वह कैसे किस प्रकार होता है? जहाँ भगवान् नहीं, वहाँ आकर क्या भगवान् खड़े रहते हैं? अरे, जगत् में ऐसी कोई जगह ही नहीं कि जहाँ भगवान् सूक्ष्म रीति से विराजते न हों। भगवान् सर्वव्यापक हैं, सर्वत्र हैं, परन्तु माया के परदे में छिपे रहते हैं। भगवान् का अवतार होता है, अर्थात् परमात्मा माया का परदा दूर करके प्रकट होते हैं। भगवान् का जन्म होता नहीं, भगवान् का प्राकट्य होता है। माया का आवरण परमात्मा से दूर करते हैं। परमात्मा को प्रकट होना बहुत अच्छा नहीं लगता। प्रभु को गुप्त रहना ही ज्यादा अच्छा लगता है। वे माया के पर्दे में रहते हैं। जहाँ रामजी की कथा होती है अथवा वैष्णव जहाँ प्रेम से राम-नाम का जप करते हैं, वहाँ प्रभु पधारते हैं। परन्तु प्रभु वहाँ गुप्त रूप से आते हैं। एक वैष्णव ने भगवान् से पूछा-महाराज ! अपना स्वरूप तुम गुप्त क्यों रखते हो? स्वरूप प्रकट करो तो सब आपके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें। जहाँ आपकी कथा होती है, जहाँ आपका कीर्तन होता है, वहाँ आप छिपे रूप से आते हो परन्तु आप स्वरूप प्रकट क्यों नहीं करते? रामजी ने कहा – मैं बहुत रूपवान् हूँ, इसलिये मुझे किसी की नजर न लग जाय, इस कारण मैं गुप्त रहता हूँ।
मानव की आँख बिगड़ी हुई है। मानव आँख से बहुत पाप करता है, मन से बहुत पाप करता है। भगवान् को भी डर लगता है कि किसी की मुझे नजर लगे तो? परमात्मा अति सुन्दर हैं। उन अति सुन्दर परमात्मा को किसी की नजर न लगे, इसलिये प्रभु की ही माया प्रभु को पर्दे में रखती है। जहाँ अतिशय प्रेम होता है, वहीं प्रभु पर्दा दूर करते हैं। परमात्मा जिसको अपना गिनते हैं, उसको ही अपना असली स्वरूप बताते हैं प्रभु ने अपना नाम प्रकट रखा है परन्तु स्वरूप छिपाया हुआ है। जीव जब परमात्मा की बहुत भक्ति करता है, प्रभु के साथ अतिशय प्रेम करता है. तभी परमात्मा उसे अपना स्वरूप बताते हैं। थोड़ा विचार करो तो ध्यान में आयेगा कि जहाँ ओछा प्रेम है, वहाँ तुम भी अपने स्वरूप को पर्दे में रखते हो। अपने असली स्वरूप को उसी के आगे प्रकट करते हो, जिससे तुमको सच्चा प्रेम है। तुम्हारे घर में सोना कितना है, चाँदी कितनी है, वह सब तुम किसी को बताते हो क्या? नहीं, तुम छिपाकर रखते हो। कितने ही लोग तो इतने विवेकी होते हैं कि पराया कोई आये तो उसके सामने घर की तिजोरी खोलते भी नहीं। कहते हैं, यह भाई बैठा है, इसको चला जाने दो बाद में खोलूँगा। यदि खोल दो तो क्या वह ले जाये? जहाँ अतिशय प्रेम है, वहाँ ही जीव अपने स्वरूप को प्रकट करता है। जिसके प्रति प्रेम होता है, उसको बिना कहे सब कुछ बताता है। जहाँ अतिशय प्रेम होता है, वहाँ मनुष्य तिजोरी की चाभी तक दे देता है परन्तु जहाँ ओछा प्रेम है, वहाँ मनुष्य भी स्वयं के स्वरूप को छिपाता है। फिर अतिशय प्रेम बिना परमात्मा क्यों प्रकट हों? यह जीव परमात्मा के साथ प्रेम करता नहीं, इसलिये वह परमात्मा का अनुभव कर सकता नहीं। बड़ा ज्ञानी भी जब तक परमात्मा के साथ प्रेम न करे, तब तक परमात्मा का अनुभव कर सकता नहीं, प्रभु का स्वरूप जान सकता नहीं।
परमात्मा की लीला का रहस्य महान् पुरुष भी समझ सकते नहीं। ठाकुरजी ऐसी लीला क्यों करते हैं, यह तो वे स्वयं ही जानते हैं। परमात्मा की लीला का रहस्य मनुष्य अपनी बुद्धि से समझने का प्रयत्न करता है परन्तु समझ सकता नहीं। इसका रहस्य अगम्य है, मानव-बुद्धि से परे है। भगवत्-कृपा से ही भगवान् की लीला का रहस्य किञ्चित् विचार में आ पाता है।

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