



एक दिन महर्षि नारद, वीणा बजाते हुए:
“नारायण… नारायण…”—वैकुंठ की ओर जा रहे थे।
रास्ते में एक औरत मिली। चेहरा मुरझाया हुआ, आँखों में खालीपन, आवाज़ सुनाई दी :
“मुनिवर… मेरे आँचल में आज तक कोई बच्चा नहीं खेला…
आप तो भगवान से मिलते हैं… ज़रा उनसे पूछिए…
मेरी गोद कब भरेगी?”
नारदजी ने करुणा से देखा:
“ठीक है माता, मैं पूछूँगा।”
और आगे बढ़ गए।
वैकुंठ में भगवान ने हँसकर स्वागत किया,
“आओ नारद! कुशल मंगल?”
नारद बोले:
“प्रभु, एक औरत मिली थी… बड़ी व्याकुल थी… पूछ रही थी—औलाद कब होगी?”
भगवान का मुख गंभीर हो गया:
“नारद, उसके भाग्य में संतान का योग नहीं है।उसे कह देना।”
वापसी पर नारदजी लौटे तो वही स्त्री दूर से दौड़ी आई
आँखों में आशा की चमक…
“क्या कहा प्रभु ने?”
नारदजी का उत्तर वज्र की तरह गिरा:
“माता… भगवान ने कहा है कि तुम्हें संतान का सुख नहीं मिलेगा।”
और वहाँ सन्नाटा छा गया।
स्त्री की पैरों से मानो धरती खिसक गई।वह फूट- फूटकर रोने लगी।
नारदजी चुपचाप आगे बढ़ गए।
समय बीता…
एक दिन उसी गाँव में एक साधु आया।उसने पुकार लगाई:
“जो मुझे एक रोटी देगा,
उसे मैं एक नेक संतान दूँगा!”
वह बाँझ स्त्री, जिसकी आँखें अभी भी हर बच्चे को देखकर भर आती थीं-तेजी से भागी, रोटी बनाई, और साधु के सामने रख दी।साधु मुस्कराया:
“तुम्हारी गोद जरूर भरेगी।”
और हुआ भी ऐसा ही।
वर्षों बाद घर में एक सुंदर पुत्र जन्मा।
ढोल बजने लगे, दीप जल उठे, औरत खुशी से नाच उठी…
जिस घर में सन्नाटा था, वहाँ अब किलकारियाँ थीं।
वर्षों बाद नारदजी फिर उसी मार्ग से गुज़रे।
वह स्त्री अपने पुत्र को गोद में लिए मुस्कराती हुई बोली:
“नारदजी!
आपने कहा था मेरे भाग्य में संतान नहीं…
देखिए, ये मेरा लाल!
एक साधु ने आशीर्वाद दिया था…
और ईश्वर ने दे भी दिया।”
नारद चकित रह गए।
“यह कैसे सम्भव है…?”
“प्रभु, आपने कहा था उसके भाग्य में संतान नहीं…
तो फिर यह सब कैसे हुआ?
क्या वह साधु आपसे अधिक शक्तिशाली था?”
भगवान मुस्कराए नहीं…
बल्कि बोले:
“नारद, मेरी तबियत ठीक नहीं।
एक औषधि चाहिए:
भूलोक से एक कटोरी मानव–रक्त ले आओ।”
नारद हतप्रभ रह गए…
फिर पृथ्वी पर उतरे।
घर–घर गए ,पर कोई रक्त देने को तैयार नहीं हुआ।
लोग उपहास उड़ाने लगे:
“भगवान बीमार हैं?
अरे जाओ जाओ!”
नारद थककर जंगल में पहुँचे।
वहीं वह साधु मिला।
साधु बोला:
“नारदजी! जंगल में क्या कर रहे हैं?”नारद लाचार स्वर में बोले—
“प्रभु ने एक कटोरी मानव–रक्त माँगा है…”साधु एक क्षण भी न हिचकिचाया।
कहा:
“छुरी दीजिए।”
और बिना कोई शब्द कहे,
अपने शरीर से रक्त निकालकर कटोरी भर दी।नारद स्तब्ध रह गए।उस रक्त को लेकर वे वैकुंठ पहुँचे।
भगवान ने कटोरी ली और बोले:
“नारद, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है।जिस साधु ने मेरे लिए अपने प्राणों का रक्त देने में एक क्षण भी नहीं सोचा…
क्या उसके चाहने पर मैं किसी को संतान नहीं दे सकता?
और तुम…
तुम्हारे शरीर में भी रक्त था,
पर तुमने एक बूँद भी नहीं दी।
भाग्य बदलता है।प्रेम से,बलिदान से,सद्भाव से,और सच्चेआशीर्वाद से।”
मनुष्य का भाग्य केवल प्रारब्ध से नहीं बनता—उसके कर्म, उसकी करुणा,और दूसरे के लिए बहाया गया एक क़तरा प्रेम भी भाग्य को बदलने की शक्ति रखता है।










