




प्रकृति में गिरगिट एक ऐसा जीव है, जो अपने चारों ओर के वातावरण के अनुसार अपना रंग बदलता है। यह उसकी रक्षा की एक स्वाभाविक क्षमता है। लेकिन आज के युग में इंसान भी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगा है, फर्क सिर्फ इतना है कि गिरगिट अपने अस्तित्व को बचाने के लिए रंग बदलता है, जबकि इंसान अपने स्वार्थ, लालच और छल-कपट को छुपाने के लिए। आज का इंसान जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उतनी ही तेजी से नैतिक मूल्यों और सच्चाई से दूर होता जा रहा है। रिश्तों में झूठ, व्यवहार में दिखावा, और शब्दों में मिठास, मगर मन में कटुता – ये आज के इंसान की पहचान बनते जा रहे हैं। वह अपने लाभ के अनुसार व्यवहार करता है – जब जहाँ जैसे व्यक्ति या परिस्थिति हो, उसी के अनुरूप अपना रूप, बात और स्वभाव बदल लेता है। जहाँ एक ओर गिरगिट का रंग बदलना उसकी प्राकृतिक विवशता है, वहीं इंसान का रंग बदलना उसकी नैतिक गिरावट को दर्शाता है। नौकरी, राजनीति, समाज या पारिवारिक रिश्तों में आज का इंसान अक्सर दिखावे का मुखौटा पहन कर जी रहा है। ईमानदारी, सच्चाई और आत्मीयता अब दुर्लभ होती जा रही हैं।इस बदलते व्यवहार का परिणाम यह है कि भरोसा कमजोर हो गया है। लोग एक-दूसरे पर संदेह करने लगे हैं, और समाज में अविश्वास की दीवारें खड़ी हो गई हैं। रिश्तों में स्थायित्व नहीं रहा, क्योंकि उनके पीछे अब स्वार्थ छिपा होता है। गिरगिट का रंग बदलना प्राकृतिक है, मगर इंसान का रंग बदलना उसकी सोच का पतन है। यदि समाज को बेहतर बनाना है, तो हमें अपने आचरण में सच्चाई, ईमानदारी और स्थिरता लानी होगी। इंसान को गिरगिट नहीं, बल्कि इंसान ही बने रहना चाहिए – ऐसा इंसान, जो परिस्थिति नहीं, सिद्धांतों के अनुसार जिए।