



आज की हमारी सबसे बड़ी भूल यही है कि खाने में बचत ढूँढते है और बीमारी में खर्चा करते है। बाजार में जब घी, तेल, दूध, मसाले या मिठाई सस्ते दिखते हैं, तो लोग तुरंत आकर्षित हो जाते हैं। कीमत कम दिखते ही दिमाग कहता है—“अरे, यह तो फायदे की बात है।” पर शरीर को तो सिर्फ पोषण चाहिए, दाम नहीं। सस्ती चीजें ज्यादातर मिलावटी होती हैं, लेकिन हम यह सोचकर ले आते हैं कि “चलो, थोड़ा-बहुत चल जाएगा।” मगर यही “थोड़ा-बहुत” एक दिन अस्पताल के बिल में बदल जाता है। आजकल मिलावट कोई छोटी समस्या नहीं; यह एक संगठित व्यावसायिक धंधा है। मिलावटी घी में पाम तेल, रसायन और कृत्रिम खुशबू मिलाकर उसे असली जैसा बना दिया जाता है। सरसों के तेल में सस्ते रिफाइंड ऑयल मिलाकर वही रंग और वही खुशबू पैदा कर दी जाती है, जैसा कच्ची घानी में होता है। मसालों में ईंट का चूरा, आर्टिफिशियल कलर और पाउडर मिलाकर मात्रा बढ़ा दी जाती है। दालों में पॉलिश, दूध में साबुन या यूरिया, मिठाइयों में कॉर्न सिरप—यह सब धीरे-धीरे शरीर में जहर की तरह फैलता है। बीमारियाँ तुरंत नहीं दिखतीं। पहले पेट गड़बड़, फिर गैस, फिर एसिडिटी—फिर अचानक ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, लीवर की कमजोरी, हार्मोन असंतुलन, और कई बार दिल-नसों की समस्या। सस्ता तेल और नकली घी हमारी नसों को जाम करते हैं। नकली मसाले किडनी पर बोझ डालते हैं। और जब शरीर टूटने लगता है, तब लोग डॉक्टर, टेस्ट, स्कैन, दवाइयों और अस्पताल के खर्चों में ऐसा फँसते हैं कि पूरी की पूरी कमाई खत्म हो जाती है। यही वह समय होता है जब समझ आता है कि “सस्ता लेना कितना महँगा पड़ गया।”दोष सिर्फ मिलावटखोरों का नहीं; कुछ हिस्सा हमारी मानसिकता का भी है। हम बचत गलत जगह करना चाहते हैं। असली तेल, घी, मसाले, दूध—ये शरीर की बुनियाद होते हैं। इनके सस्ते विकल्प हमेशा खतरनाक साबित होते हैं। पर इंसान जेब हल्की देखकर खुश हो जाता है, और शरीर भारी पड़ने पर रोने लगता है। जब तक हमारी सोच बदल नहीं जाती, तब तक मिलावट का यह चक्र चलता रहेगा—सस्ते सामान से शुरू होकर अस्पताल तक। सच्चाई यह है कि शुद्धता हमेशा महँगी लगती है, पर बीमारी उससे कहीं अधिक महँगी होती है। जो लोग खाने में बचत करते हैं, वे अक्सर अस्पताल में हजारों–लाखों खर्च कर देते हैं।










