बिहार। बीते दिनों की कुछ अजीबो गरीब यादों को ताजा करने का मौका मिले तो आखों से खुशी छलकने को मजबूर होकर बाहर आ ही जाती है। रोकने का लाख प्रयास कर ले लेकिन मोती की बूंदे रुकती ही नही। आज इंसान हर वक्त विलासिता के साधनों को पाने की सोच में लगा हुआ है। हर व्यक्ति चाहता है कि सब कुछ बिल्कुल वैसा हो जाए जैसा मुझे चाहिए। लेकिन हमें इच्छाओं पर काबू करने से पहले हकीकत को देखने व समझने को आना चाहिए। मन पर काबू भी करना आना चाहिए अगर मन परिस्थितियों के हिसाब से ढल जाए तो इंसान हर मुश्किल दौर से जीत सकता है। पर यह मन मानता कहां है। आए दिन इसी हारे मन की वजह से आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं और यह स्थिति तब ज्यादा भयावह बन जाती है जब आत्महत्या करने वाले ज्यादातर लोग युवा पाए जाते हैं। देश में हर चार मिनट में कोई एक अपनी जान दे देता है और ऐसा करने वाले तीन लोगों में से एक युवा होता है। यानी तीस वर्ष से कम उम्र के ऐसे में यह बात सोचने पर मजबूर कर देती है कि वह लोग जिनके अपनी जिंदगी को लेकर हजारों सपने होते हैं ऊंची उड़ानें होती हैं व खुद ही अपने सपनों के पंखों को कैसे काट देते हैं। कितने मजबूर होते होंगे वे हाथ जो खुद ही अपना भविष्य लिखते भी हैं और उसे खत्म भी कर देते हैं। ऐसा वही लोग करते हैं जिनका मन हार जाता है, वो अपनी काबिलियत को दरकिनार करने के बाद मन से विकलांग हो जाते है। उनके मन मे एक गहरी सोच की काबिलियत से हार जाते है। इसलिए आत्महत्या से पहले किसी भी व्यक्ति के मन की पहले हत्या होती है। पर क्या यह करना ठीक है? क्या कोई सरकार या अन्य व्यक्ति या समाज आत्महत्या के मामलों पर रोक लगा सकता है? यह किसकी जिम्मेदारी है? क्या इस ओर सामूहिक पहल नहीं होनी चाहिए? इसपर किसी भी समाज का ध्यान नही आने की वजह आज के दौर में नई सोच नई दुनिया इलेक्ट्रॉनिक नई तकनीक इसमे पहला स्थान मोबाइल का आता है। अभी किसी को रुकने की आदत ही नही जिस दिन रुकना आदत बन जाएगी उसी दिन से नए युवाओं में समझ बिल्कुल ही आ जायेगी।