



जब तीनों लोकों की देवियों—श्री लक्ष्मी जी, श्री सती जी और श्री सरस्वती जी—को अपने पातिव्रत्य पर अभिमान हुआ, तब भगवान ने अपनी परम भक्त माता अनुसूया का मान बढ़ाने के लिए एक अद्भुत लीला रची। देवर्षि नारद के माध्यम से तीनों देवियों को यह भान कराया गया कि चित्रकूट में रहने वाली महर्षि अत्रि की पत्नी, माता अनुसूया, से बढ़कर कोई पतिव्रता नहीं है। त्रिदेवों की परीक्षा और माता का तप ,तीनों देवियों के हठ पर, ब्रह्मा, विष्णु और महेश मुनि का वेष धारण कर महर्षि अत्रि के आश्रम पहुंचे। उन्होंने माता अनुसूया से एक असंभव और धर्म-संकट में डालने वाली भिक्षा मांगी – “विवस्त्र होकर हमारा आतिथ्य करो।” सतीत्व का चमत्कार -माता अनुसूया ने अपने सतीत्व के तेज से जान लिया कि ये साधारण मुनि नहीं, बल्कि त्रिदेव हैं जो उनकी परीक्षा लेने आए हैं। उन्होंने अपने पति के चरणों का ध्यान किया और कहा-“यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैंने कभी भी काम-भाव से किसी पर-पुरुष का चिन्तन नहीं किया हो, तो आप तीनों छह-छह माह के शिशु बन जाएं!”
माता का इतना कहना था कि सृष्टि के रचयिता, पालनहार और संहारक—तीनों देव तत्काल छह-छह महीने के प्यारे शिशु बन गए! माता अनुसूया ने वात्सल्य भाव से उन्हें अपना स्तनपान कराया और पालने में झूलाया। त्रिदेव माता के प्रेम के बंदी बन गए।जब पतियों की कोई सूचना न मिली, तो तीनों देवियां आश्रम पहुंचीं। वहां का दृश्य देखकर वे दंग रह गईं और माता अनुसूया से क्षमा मांगी। माता ने त्रिदेवों को उनका पूर्व रूप लौटाया। प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने अपने अंश से उनके यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया, जिसके फलस्वरूप भगवान दत्तात्रेय का अवतार हुआ। यह कथा सिद्ध करती है कि सच्चे पातिव्रत्य और निश्छल भक्ति के आगे साक्षात् ईश्वर भी शिशु बनकर खेलने लगते हैं।










