भगवत्संबंधी कार्यों में लगाने में ही शरीर की सार्थकता है -पं० भरत उपाध्याय

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‘कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥’ बिना हेतु स्नेह करने वाले भगवान् कृपा करके मनुष्य शरीर देते हैं। मनुष्य शरीर परमात्म-प्राप्तिके लिए मिला है; इतनी उम्र हो जानेके बाद इधर कितना आगे बढ़े हैं, क्या इस चालसे इस शरीरके रहते परमात्म-प्राप्ति हो जाएगी— इस तरफ विचार करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। मनुष्य यदि इधर विचार करे तो नींद उड़ जाय! ‘मारिहि काल अचान चपेटकी, होइ घड़ीक में राख की ढेरी।’ ‘हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम्।’ भगवान् श्रीहरि: की स्मृति समस्त विपत्तियों का नाश करने वाली है। जब तक तत्त्व-ज्ञान न हो जाय, भगवान् के चरणों में अनन्य प्रेम न हो जाय, तब तक विश्राम नहीं करना चाहिए। मानव शरीर भोग और संग्रह के लिए नहीं मिला है, लेकिन प्रायः लोग इसी तरफ लगे हुए हैं। मनुष्य शरीर भगवान् ने कृपा करके दिया है तो इसे भगवत्संबंधी कार्यों में लगाने में ही इसकी सार्थकता है; नहीं तो दुःख पाना पड़ेगा।

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