जीवन के कुचक्रों से सावधान रहें :- पं0 भरत उपाध्याय

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“सोते समय व्यक्ति को ‘स्वयं तो कुछ पता नहीं चलता,’ परंतु उसके सोने पर होने वाली क्रियाएं ‘दूसरों को अवश्य प्रभावित’ करती हैं।” व्यक्ति पूरा दिन काम करता है। दिन भर के व्यवहारों में बहुत सावधानी से जीवन को जीना पड़ता है। अनेक दुर्घटनाओं से बचना पड़ता है। धूर्त बेईमान और दुष्ट लोगों से अपनी रक्षा करनी पड़ती है। जिस का परिणाम यह होता है, कि व्यक्ति शाम तक खूब थक जाता है। अनेक प्रकार की चिंताएं राग द्वेष काम क्रोध लोभ अभिमान आदि समस्याएं उसे घेर लेती हैं। परेशान करती हैं। “फिर भी ईश्वर की कितनी कृपा है, कि इन सब चिंताओं आदि से मुक्ति देने के लिए ईश्वर, रात्रि को अच्छी गहरी नींद में सुला देता है।” रात्रि को 5/ 7 घंटे की अच्छी गहरी नींद में व्यक्ति सब चिन्ताओं से मुक्त होकर शांत प्रसन्न आनंदित हो जाता है। सुबह एकदम हल्का (फ्रैश) होकर उठता है। “जब रात्रि में वह सो रहा होता है, तब उसे संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता।” उसे इतना भी पता नहीं चलता कि “मैं दिल्ली में सो रहा हूं, हैदराबाद में, मुंबई में, या कोलकाता में। मैं पलंग पर सो रहा हूं या जमीन पर।” उसे इस बात का कुछ भी आभास तक नहीं होता। सुबह जब वह हल्का (चुस्त) होकर उठता है, तो बड़े उत्साह के साथ अगले दिन के कार्य आरंभ कर देता है। इस निद्रा काल में व्यक्ति इतना बेखबर होकर सोता है, कि “किसी दूसरे व्यक्ति को उसके खर्राटों आदि दोष के कारण कितना कष्ट हो रहा है, यह भी उसे पता नहीं चलता।” परंतु उसके खर्राटों से दूसरे लोगों को कष्ट तो होता ही है। “सोते समय जिन्हें थोड़ा भी शोर अनुकूल नहीं पड़ता, और यदि वे उसके पास में सो रहे हों, तो उन्हें नींद नहीं आती। वे लोग उसके खर्राटों से इतने दुखी हो जाते हैं, कि उन्हें मजबूरन अपने सोने का स्थान बदलना पड़ता है।” यह तो हुई निद्राकाल की बात। “इसी प्रकार से, जागृत अवस्था में व्यवहार काल में भी कुछ ऐसे दोष होते हैं, जो खर्राटों के समान होते हैं, अर्थात उसे उन दोषों का व्यवहार काल में जागृत अवस्था में भी पता नहीं चलता।” परंतु ऐसे दोष भी दूसरों को परेशान तो करते ही हैं। “जैसे रात को सोते समय खर्राटे दूसरों को दुख देते हैं, वैसे ही जागृत अवस्था में हठ क्रोध अभिमान ईर्ष्या इत्यादि दोष भी दूसरों को दुख देते हैं। इसलिए व्यक्ति को व्यवहार में सदा सावधान रहना चाहिए।” सोते समय तो फिर भी मान सकते हैं, कि उन्हें पूरा होश नहीं होता, और पता नहीं चलता, कि ‘मैं खर्राटे ले रहा हूं, मेरे खर्राटों से किसी दूसरे को परेशानी हो रही है।’ “परंतु जागृत अवस्था में तो व्यक्ति सावधानी का प्रयोग कर सकता है, और अपना परीक्षण निरीक्षण करके वह जान सकता है, कि ‘मुझ में क्या दोष हैं।” अतः सभी लोगों को आत्म निरीक्षण करना चाहिए, और अपना अपना पता लगाना चाहिए, कि “कहीं मैं हठ क्रोध ईर्ष्या अभिमान आदि दोषों से ग्रस्त तो नहीं हूं? मेरे इन दोषों से कहीं दूसरों को कष्ट तो नहीं हो रहा?” आत्म निरीक्षण से यदि पता चल जाए, कि मुझमें ये अथवा ऐसे ही कुछ अन्य दोष हैं। तो बुद्धिमान व्यक्ति को तत्काल ऐसे दोषों को दूर करना चाहिए। स्मरण रहे, “यदि अनजाने में भी आपसे ये दोष या इसी प्रकार के अन्य दोष होते रहे, और आपके दोषों के कारण दूसरों को यदि कष्ट होता रहा, तो भी आपको इसका दंड तो भोगना ही पड़ेगा।” और यदि आत्म निरीक्षण करने के पश्चात पता चल जाए, कि ‘मैं हठ क्रोध ईर्ष्या अभिमान आदि दोषों से ग्रस्त हूं।’ तो शीघ्र ही अपने ऐसे दोषों को दूर करना चाहिए। “और यदि आप अपने दोषों को दूर नहीं करते, तथा जानबूझकर भी दूसरों को कष्ट देते रहते हैं, तब तो बहुत अधिक दंड भोगना पड़ेगा।”
“अतः सदा सावधान रहें। आत्म निरीक्षण अथवा दूसरों से चर्चा करके अपने दोषों को ढूंढें, उन्हें दूर करें, ईश्वर और समाज के दंड से बचें। सत्य न्याय सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार आदि अच्छे गुणों को धारण करें और सबको सुख देवें। तभी आपको भी सुख मिलेगा, अन्यथा नहीं।”

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