अमृत वाणी। माण्डव्य पौराणिक काल के एक महान ऋषि थे जिनके श्राप के कारण यमराज को भी मनुष्य का जन्म लेना पड़ा। वैसे तो यमराज सारे प्राणियों के कर्मों के आधार पर न्याय करते हैं इसीलिए उन्हें धर्मराज कहा जाता है किन्तु उन्होंने अनजाने में माण्डव्य ऋषि के साथ अन्याय किया जिसका दंड उन्हें भोगना पड़ा। महर्षि माण्डव्य भार्गव वंश के ऋषि थे और उनका एक नाम “अणीमाण्डव्य” भी कहा गया है। इनके विषय में कथा मत्स्य पुराण में दी गयी है। वे महर्षि मातंग और दित्तामंगलिका के पुत्र थे। उन्होंने अल्प आयु में ही बहुत सी सिद्धियां प्राप्त कर ली और ऋषियों में सम्मानित हो गए। उनका एक व्रत था कि संध्याकाल के तप के समय वे मौनव्रत धारण किये रहते थे। एक बार कुछ लुटेरे लूट का बहुत सारा सामान लेकर भाग रहे थे। उनके पीछे कई राजकीय सैनिक लगे थे जिनसे बचने के लिए वे भाग कर माण्डव्य ऋषि के आश्रम में छिप गए। थोड़ी देर बाद जब सैनिक वहां आये तो उन्होंने माण्डव्य ऋषि से उन लुटेरों के विषय में पूछा।
मौन व्रत के कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब जब सैनिक अंदर गए तो उन्हें लूट के सामान के साथ लुटेरे भी मिल गए। उन्होंने समझा कि ये ऋषि भी इनके साथ मिले हुए हैं इसी कारण वे लुटेरों के साथ ऋषि को भी पकड़ कर ले गए और राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने भी उनसे प्रश्न किया किन्तु मौन व्रत होने के कारण माण्डव्य ऋषि कुछ नहीं बोले।
राजा ने इसे उनकी स्वीकृति समझा और सभी लुटेरों के साथ उन्हें भी सूली पर चढाने का आदेश दे दिया। सूली पर चढाने से अन्य लुटेरे तो तक्षण मर गए किन्तु माण्डव्य ऋषि अपने तप के बल पर कई दिनों तक बिना खाये-पिए जीवित रहे। शूल के अग्र भाग को “अणि” कहते हैं और तभी से वे “अणीमाण्डव्य” नाम से भी प्रसिद्ध हुए। जब राजा को इस चमत्कार के बारे में पता चला तो तो स्वयं नंगे पांव महर्षि के पास आये और उन्हें सूली पर से उतारा। फिर उन्होंने महर्षि से बारम्बार क्षमा मांगी। मांडव्य ऋषि ने ये सोच कर उसे क्षमा कर दिया कि राजा ने तो परिस्थिति के अनुसार न्याय किया। वे चुप-चाप वहां से चले गए। वे चले तो गए किन्तु एक बात उन्हें खाये जा रही थी कि उन्होंने कभी कोई पाप नहीं किया फिर किस कारण उन्हें ऐसा दंड भोगना पड़ा? इसका कारण जानने के लिए वे यमपुरी पहुंचे जहाँ यमराज ने उनका स्वागत किया। माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा कि उन्हें याद नहीं कि कभी उन्होंने कोई अपराध किया हो तो फिर किस कारण उन्हें ऐसा घोर दंड भोगना पड़ा?
इस पर यमराज ने कहा – “हे महर्षि! बालपन में आपने पतंगों के पृष्ठ भाग में सींक घुसा दिया था जिस कारण आपको ये दंड भोगना पड़ा। जिस प्रकार छोटे से पुण्य का भी बहुत फल प्राप्त होता है उसी प्रकार छोटे से पाप का भी फल अधिक ही मिलता है। यह सुनकर माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा कि मैंने ये अपराध किस आयु में किया था? तब यमराज ने उन्हें बताया कि उन्होंने ये कार्य १२ वर्ष की आयु में किया था। इसपर माण्डव्य अत्यंत क्रोधित हो यमराज से बोले – “हे धर्मराज! शास्त्रों के अनुसार मनुष्य द्वारा १२ वर्ष तक किये कार्य को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्यूंकि उस आयु में उन्हें पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता। किन्तु तुमने बालपन में किये गए मेरे अपराध के कारण मुझे इतना बड़ा दंड दिया इसीलिए मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि तुम मनुष्य योनि में शूद्र वर्ण में एक दासी के गर्भ से जन्मोगे।” तब यमराज ने उनसे प्रार्थना की तो उन्होंने उन्हें बताया कि अगले जन्म में वे सारे संसार में प्रसिद्ध होंगे।
उसके अतिरिक्त माण्डव्य ऋषि ने एक नयी मर्यादा स्थापित की जिसमें उन्होंने आयु सीमा को बढ़ा कर १४ वर्ष कर दिया।
अब १४ वर्ष तक के बच्चों को अपने किये आचरण के कारण दंड से अभय मिल गया। माण्डव्य ऋषि के श्राप के कारण ही धर्मराज द्वापर में महर्षि वेदव्यास की कृपा से अम्बा की दासी पारिश्रमी के गर्भ से विदुर के रूप में जन्में। वे अपने काल के महान राजनीतिज्ञ और हस्तिनापुर के महामंत्री बनें।
माण्डव्य ऋषि के सन्दर्भ में एक और कथा का वर्णन आता है जो सती कौशिकी के सम्बन्ध में है। कौशिकी नाम की एक सती स्त्री थी जिनके पति का नाम कौशिक था जो अपंग थे।
एक दिन रात्रि में वे कही जा रहे थे और अँधेरे के कारण वे तपस्यारत महर्षि माण्डव्य से टकरा गए जिससे उनकी तपस्या भंग हो गयी। इससे क्रुद्ध होकर माण्डव्य ऋषि ने कौशिकी को श्राप दे दिया कि अगले सूर्योदय पर वो विधवा हो जाएगी।
कौशिकी अनेकों सिद्धों के पास गयी पर सभी ने माण्डव्य ऋषि के श्राप को विफल करने में असमर्थता दिखलाई।
तब वे माता पार्वती की शरण में गयी जिन्होंने आकाशवाणी के माध्यम से उन्हें बताया कि वे अपने सतीत्व की शक्ति का प्रयोग करे। सूर्योदय से कुछ समय पूर्व यमदूत कौशिकी के सम्मुख आ गए किन्तु उसने दसो दिशाओं को साक्षी मान कर कहा कि यदि वो सच में सती है तो अब सूर्योदय ही नहीं होगा। सूर्यदेव कौशिकी के सतीत्व की रक्षा के कारण रुक गए। सूर्य की गति रुकने से सारे जगत में हाहाकार मच गया। देव त्रिदेवों के पास गए जिन्होंने उन्हें माता अनुसूया से सहायता मांगने को कहा।
तब देवों की प्रार्थना पर अनुसूया कौशिकी के पास आयी और उसकी सराहना करते हुए सूर्य को मुक्त करने को कहा।
उन्होंने कौशिकी को विश्वास दिलाया कि वे उसके पति के प्राणों की रक्षा करेंगी। उनके आश्वासन पर कौशिकी ने सूर्य को मुक्त कर दिया। सूर्योदय होते ही यमदूत कौशिक के प्राण लेने को आगे बढे किन्तु माता अनुसूया के सतीत्व के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। तब यमराज के अनुरोध पर माता अनुसूया ने अपने सतीत्व का कुछ भाग देकर कौशिकी को महर्षि माण्डव्य के श्राप से मुक्त कर दिया और कौशिक की रक्षा की।
इस प्रकार संसार ने दो सतियों का प्रताप एक साथ देखा।